रविवार, जुलाई 30, 2017

जो गिर गए निगाहों से

जो  गिर  गए  निगाहों से   उन्हें उठा   रही  हूँ
माना है मुश्किल फिर भी करके दिखा रही हूँ

बदला है   वक़्त ऐसा     हालात  मुश्किलों  में
मैं साथ वक़्त के  इन्हें  चलना सिखा   रही हूँ

इस दिल  के   आँगने  में  तुमने कभी  थे  रोपे
उन्ही  फले  जज़्बात को शायद मैं गा  रही  हूँ

दर्द   के   संग   करके   ख़ुशियों    की   सगाई
विदा  होने   की रस्मों को  निभाये जा   रही हूँ

पुरानी याद की अल्बम हूँ बैठी खोलकर अपनी
जमी  जो   धूल  बरसों   से   हटाये  जा रही  हूँ

शनिवार, जुलाई 01, 2017

ग़ज़ल
सभ्यता की वो निशानी है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़  बाक़ी है   अभी तक गाँव में

शहर में फैले हुए   हैं   कांटे नफ़रत के मगर
प्रेम की बगिया महकती है अभी तक गाँव में

चैट और ईमेल पर  होती  है  शहरी गुफ़्तगू
ख़त किताबत ,चिट्ठी पत्री  है अभी तक गाँव में

दौड़ अंधी शहर में पेंड़ो को हर दिन काटती
पेंड़ो की पर पूजा होती है अभी तक गाँव में

एक पगली सी नदी बारिश में आती थी उफ़न
वैसे ही सबको डराती है अभी तक गाँव में

शहर में चाइनीज़ थाई नौजवानों की पसंद
ख़ुशबू पकवानों की आती है अभी तक गाँव में

दिन के चढ़ने तक हैं सोते मग़रिबी तहज़ीब में
तड़के- तड़के ही प्रभाती है अभी तक गाँव में


सभी ब्लॉगर साथियों को ब्लॉगिंग दिवस की शुभकामनायें