गुरुवार, अप्रैल 02, 2015

नहीं कहला रहे नीलकंठ

कई बार खो जाते हैं ,
साथ  रहते,चलते
करीबी रिश्ते |
जब ,
सर उठाने लगती है
साथ गुजारे  
लम्हे
कुछ लौट आते हैं
उलटे क़दम
जैसे आ जाता है ,
सुबह का निकला पंछी नीड़ में |
कुछ अजनबी बन कर
नदी का किनारा सा रह जाते हैं |
पी रहे हैं ,
हमारे तुम्हारे जैसे
सरल आशुतोष
रिश्तों के मंथन से निकले विष को
पर नहीं कहला रहे नीलकंठ !
दूर खड़ी
मौन ,  टूटे मनके को
रह-रह कर  बांधती है ,
पर भावनाओं के बिखरे  मोती
छटक कर दूर चले जाते हैं !

"रजनी मल्होत्रा (नैय्यर )