सोमवार, अक्तूबर 15, 2012

मुरझा गयी हैं कलियाँ बिन बागवान के

एक ग़ज़ल महबूब के नाम ..........

हो जाती ग़ज़ल खिलकर गुलाब सी,
एक बार वो फिर से दीदार दे जाते |

हो जाती मदहोश लिपट कर "चांदनी रात"
संग जागकर फिर वही ख़ुमार दे जाते |

ले जाते मेरी भीनी सी खुशबू की सौगात
एक बार पहलू में आकर वो प्यार दे जाते |


मुरझा गयी हैं कलियाँ बिन बागवान के,
उन कलियों को फिर वही बहार दे जाते |

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
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