रविवार, अप्रैल 08, 2012

विमान परिचारिका

अक्सर कहती थी मुझसे,
जब भी वो फुरसत के लम्हों में
मेरे साथ होती ,
"मुझे चाँद पर जाना है"
सुनकर मैं हंस देती,
तुम क्या-क्या करोगी?
अजीब सी तमन्नाएं सुनाती रहती हो ,
कभी विमान परिचारिका
बनने का सपना ,
कभी कहती काश मै परिंदा होती,
सारा आकाश नाप आती,
पर चाँद पर जाने के लिए परिंदा होना काफी नहीं ,
कह कर मायूस हो जाती
फिर कुछ पल खामोश रह कर,
करती कुछ सवाल..
क्या मन की खूबसूरती काफी नहीं,
कुछ पाने के लिए ,
तन की खूबसूरती ही जरुरी है
विमान परिचारिका
बनने के लिए मेरे पास खुबसूरत मन तो है,
पर खुबसूरत चेहरा कहाँ  से लाऊं ?
उसकी वो ख़ामोशी, वो तड़प,
अंतर्मन की चाह
सब मुझे ऐसे प्रतीत होते थे
जैसे आम सी ज़िन्दगी ,
और आम इच्छाओं को लिए लोग
अंतर्मुखी स्वभाव ,
पर गहरी  सोंच में वो चाहत ,
एक कील सी दबी थी|
वक़्त की बदलती करवटों में
धुंधली होती गयी हर तस्वीर
जो खिंची थी उसने
मेरे साथ बैठ कर|
अनायास ही एक दिन ,
वो ज़िन्दगी और मौत से लड़ रही,
अस्पताल के बिस्तर पर,
मुझे देखते ही बस इतना कहा .......
"अब तो कोई योग्यता नहीं चाहिए मुझे चाँद पर जाने के लिए "
मेरी अर्जी शायद सुन ली उपरवाले ने,
अवाक् उसे देखती रही ,
पत्थर की तरह हो गयी  ,
 मै एक पल को,
आज जब भी,
 दिन हो या रात
चाँद देख कर
वो नज़र आती है,
जो कहीं छुप गयी
चाँद के पीछे |
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"