रविवार, अप्रैल 29, 2012

मज़दूर हूँ अपनी मजबूरी बोल रहा हूँ






मजदूर के दर्द पर मेरी एक रचना जो बहुत पहले लिखी थी, आज आप सभी के बीच साझा कर रही

आज    दिल  का    दर्द    घोल    रहा   हूँ,
मज़दूर  हूँ अपनी मजबूरी  बोल  रहा   हूँ |

ग़रीबी      मेरा     पीछा   नहीं       छोड़ती,
क़र्ज़    को   कांधे पर   लादे   डोळ  रहा हूँ |

पसीने   से तर -ब -तर   बीत   रहा  है  दिन,
रात पेट  भरने को नमक  पानी  घोल रहा हूँ |

आज    दिल     का   दर्द    घोल     रहा   हूँ,
मज़दूर    हूँ   अपनी    मजबूरी  बोल  रहा हूँ |

बुनियाद   रखता    हूँ  सपनों    की   हर  बार,
टूटे    सपनों   के    ज़ख्म   तौल    रहा     हूँ |

मज़दूरी   का   बोनस     बस      सपना    है,
सपनों   से   ही   सारे    अरमान   मोल  रहा हूँ|

रजनी नैय्यर मल्होत्रा





























































शनिवार, अप्रैल 28, 2012

कर दी कुर्बान अपनी  मुहब्बत जिन्होंने हँसते- हँसते,
क्यों   न    आया   उनका    नाम   शहीदों   में ?
छिन्न      कर     भला    क्या   हासिल   होता,
बुजदिलों   की     कमी    नहीं   थी ज़माने  में ।   

"रजनी "

शनिवार, अप्रैल 14, 2012

ये कैसी रिश्तों की विदाई

घरों   के    बंटवारे   में     रिश्ते    सिमट      गए,
कल  तक घर   था  अब  कमरों   में   सिमट  गए.

भाग   दौड़   करते   थे   सारे   घर   में   कूदाफांदी,
छीन   गयी    उन   मासूम  बच्चो    की   आज़ादी.

दादा,- दादी,   चाचा - चाची, रिश्तों का ये भारीपन,
बड़ों   के   मतभेद   में   ना   पीसो  बच्चों  का  मन .

बंटवारे   की   शर्त  घरों   को दीवारों   में  पाट  गयी
दिल   से  जुड़े   रिश्तों  को   मतलबों  में   बाँट  गयी

खेल खेल में चुन्नू,मुन्नू  बिन्नी का व्याह  रचाते  थे,
 वक़्त   विदाई आने पर ,एक दूजे  को   ताब बंधाते थे.

आज   वो   दिन   भी    आया  बिन्नी   हुई  परायी ,
 उसकी डोली को देने  कान्धा, आया   ना कोई भाई,

ये       कैसी           रिश्तों        की            विदाई,
ये       कैसी          रिश्तों        की             विदाई ?

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"


रविवार, अप्रैल 08, 2012

विमान परिचारिका

अक्सर कहती थी मुझसे,
जब भी वो फुरसत के लम्हों में
मेरे साथ होती ,
"मुझे चाँद पर जाना है"
सुनकर मैं हंस देती,
तुम क्या-क्या करोगी?
अजीब सी तमन्नाएं सुनाती रहती हो ,
कभी विमान परिचारिका
बनने का सपना ,
कभी कहती काश मै परिंदा होती,
सारा आकाश नाप आती,
पर चाँद पर जाने के लिए परिंदा होना काफी नहीं ,
कह कर मायूस हो जाती
फिर कुछ पल खामोश रह कर,
करती कुछ सवाल..
क्या मन की खूबसूरती काफी नहीं,
कुछ पाने के लिए ,
तन की खूबसूरती ही जरुरी है
विमान परिचारिका
बनने के लिए मेरे पास खुबसूरत मन तो है,
पर खुबसूरत चेहरा कहाँ  से लाऊं ?
उसकी वो ख़ामोशी, वो तड़प,
अंतर्मन की चाह
सब मुझे ऐसे प्रतीत होते थे
जैसे आम सी ज़िन्दगी ,
और आम इच्छाओं को लिए लोग
अंतर्मुखी स्वभाव ,
पर गहरी  सोंच में वो चाहत ,
एक कील सी दबी थी|
वक़्त की बदलती करवटों में
धुंधली होती गयी हर तस्वीर
जो खिंची थी उसने
मेरे साथ बैठ कर|
अनायास ही एक दिन ,
वो ज़िन्दगी और मौत से लड़ रही,
अस्पताल के बिस्तर पर,
मुझे देखते ही बस इतना कहा .......
"अब तो कोई योग्यता नहीं चाहिए मुझे चाँद पर जाने के लिए "
मेरी अर्जी शायद सुन ली उपरवाले ने,
अवाक् उसे देखती रही ,
पत्थर की तरह हो गयी  ,
 मै एक पल को,
आज जब भी,
 दिन हो या रात
चाँद देख कर
वो नज़र आती है,
जो कहीं छुप गयी
चाँद के पीछे |
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"