गुरुवार, अगस्त 26, 2010

हर जर्रे में तू है ये अहसास तो है

गुलजार है गुलशन मेरा आज भी तसव्वुर में ,
हर जर्रे में तू है ये अहसास तो है ,
उन कहकहों का क्या करूँ  ?
जो याद आ कर आज दिल को जलाती हैं ".

शनिवार, अगस्त 21, 2010

बाबुल की लाडली आँखों का तारा

लड़कियां       खिल   कर    बाबुल     के   आँगन में,
किसी        और        का       घर       महकाती   हैं .


जन्म        के      बंधन        को         छोड़      कर ,
रस्मों    के     बंधन  को  जतन     से    निभाती    हैं.

जिस  कंधे ने  झूला झूलाया, जिन बाँहों ने गोद उठाया,
उस  कंधे को  छोड़  किसी और का संबल  बन   जाती हैं.

बाबुल      की       लाडली,    आँखों        का         तारा ,
 बाबुल   से    दूर   किसी   और का  सपना  बन  जाती हैं.

बाबुल  के जिगर  का  टुकड़ा,  वो  गुड़िया    सी   छुईमुई,
एक   दिन   ख़ुद  टुकड़ों    में बँट   कर    रह   जाती   हैं .

 सींच   कर बाबुल  के हाथों , किसी   और   की हो जाती हैं,
मेहंदी     सी पीसकर  , किसी   के   जीवन  में  रच जाती हैं.


लड़कियां     खिल       कर  बाबुल       के        आँगन    में,
किसी         और        का          घर              महकाती   हैं.
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

मंजिल तक आकर कदम फिसलते देखा है

जीवन की सफर में लय  से सुर को छूटते  देखा है.
 अक्सर लोगों को बन कर भी बिखरते देखा है,

एक छोटी सी भटकाव भी बदल देती है रास्ता.
 मंजिल तक आकर कदम फिसलते देखा है.

हर चाह सिसक कर तब आह बन जाती है

"बदलती है किस्मत जो रूख अपना,
हर चाह सिसक कर तब आह बन जाती है,
वफा  करके भी जब बेगैरत ज़िन्दगी से ,
ज़फ़ा की सौगात  मिल  जाती है. "

रु-ये -ज़िन्दगी उतनी हँसीं नहीं

ek urdu shayri zindaki ke bare me

रु-ये -ज़िन्दगी उतनी हँसीं नहीं, मालूम तब होता है जब दर्स दे जाती है,
दौरे-अय्याम जब सरशारी-ये -मंजिल से पहले नामुरादी जबीं पे सिकन लाती हैं.

रु-ये -ज़िन्दगी --- ज़िन्दगी का चेहरा
दर्स -- सबक
दौरे-अय्याम --समय का फेर
सरशारी-ये -मंजिल -- मंजिल की पहुँच
नामुरादी ------ असफलता
जबीं पे -- माथे पे

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

छूट गया निगाहों का मिलकर मुस्कुराना,

छूट गया निगाहों का मिलकर मुस्कुराना,
आज जब भी भीगती हैं निगाहें तो हौले से मुस्काती हैं,
तेरे यादों का मेरी निगाहों से जाने कौन सा नाता है.
तस्वुर में जब भी आता है भीग कर भी मुस्कुराती हैं निगाहें.

शाम होते ही , बढ़ जाती हैं बेताबियाँ,

वो  ढला दिन,
गया आफ़ताब ,
अब फिर तू ,
जलने की,
तैयारी कर ले ,
शाम होते ही ,
बढ़ जाती हैं बेताबियाँ,
अब तो हवाओं से,
तू यारी करले.

बुधवार, अगस्त 18, 2010

आज दामन थामने को तू जो नहीं

संभले कदम भी लड़खड़ाते थे डगर पे
,तुझसे सहारे की आदत जो थी,
अब चलती हूँ तो लड़खड़ाने से डरती हूँ,
आज दामन थामने को तू जो नहीं. "

सोमवार, अगस्त 02, 2010

मैं और मेरी तन्हाई



हर   लम्हा अब   मुझे   तड़पा   रहा है,
भीड़ में भी अकेलापन नज़र आ रहा है.

हर तरफ ख़ामोशी एक सवाल करती है,
अकेलापन अब जीना दुश्वार करती  है.

कभी भागते फिरते  थे वक़्त के साथ हम,
अब तो हर क्षण लगता है रुक गया है. 

मेरी   तरह   शायद   वो  भी  थक  गया  है,
चलते - चलते समय का चक्र  रुक गया है.

रौशनी   की किरण    दूर  नजर  आ रही है,
लगता   है   शायद     मुझे   बुला   रही   है.

एक   सितारा  भी   अगर  मुझको मिल जाये,
तन्हाई में   भी उम्मीद की किरण जगमगाए.

मिलने को तो सारा   समन्दर   मुझे  मिला  है,
पर   समन्दर में  कभी कोई गुल न   खिला  है.

पलकों   पर अधूरे ख़्वाब   न  जाने क्यों आये,
जो बादल सा   अब तक हैं पलकों  पर   छाये.

कभी तो बदलियों की ओट से चाँद नज़र आये 
ऐसी    अधूरी ख़्वाब     कोई        न    सजाये.

पूरी  होने से  पहले  जो  ख़्वाब   चूर हो   जाते  है,
टूटकर    वो लम्हें    बड़ा    दर्द    दे    जाते     हैं.

शीशे    की   उम्र   सिर्फ    शीशा ही बता पाता है,
या   उसे   पता है जो    शीशे सा   बिखर जाता है.

हमने       भी   ख़ुद    को   जोड़ा   है    तोड़कर,
अपने वजूद को एक   जा   किया    है   जोड़कर ,

टूट  कर भी   जुड़ना   कहाँ हर किसी को  आता है,
हर   कोई        कहाँ    ऐसी  क़िस्मत    पाता    है.

हर लम्हा  जब    तडपाये  भीड़ भी तन्हा कर जाये
जीने   की चाह   में     फिर जीने   वाले कहाँ जाएँ.

हर    लम्हा     अब    मुझे  तड़पा       रहा   है,
भीड़   में   भी   अकेलापन   नज़र   आ   रहा है.

"रजनी"